राजा बलि का घमंड तोड़ने भगवान विष्णु को लेना पड़ा वामन अवतार


Ravi Soni: गढाकोटा :
नगर मे श्री मद् भागवत कथा के तीसरे दिन कथा वाचक पं ब्रजेश महाराज मगरोंन वालो ने कहा कि, दैत्यों का राजा बलि बड़ा पराक्रमी राजा था। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उसकी शक्ति के घबराकर सभी देवता भगवान वामन के पास पहुंचे तब भगवान विष्णु ने अदिति और कश्यप के यहां जन्म लिया। एक समय वामन रूप में विराजमान भगवान विष्णु राजा बलि के यहां पहुंचे उस समय राजा बलि यज्ञ कर रहे थे। बलि से उन्होंने कहा राजा मुझे दान दीजिए। बलि ने कहा मांग लीजिए। वामन ने कहा मुझे तीन पग धरती चाहिए। दैत्यगुरु भगवान की महिमा जान गए। उन्होंने बलि को दान का संकल्प लेने से मना कर दिया। लेकिन बलि ने कहा गुरुजी ये क्या बात कर रहे हैं आप। यदि ये भगवान हैं तो भी मैं इन्हें खाली हाथ नहीं जाने दे सकता। भगवान वामन ने अपने विराट स्वरूप से एक पग में बलि का राज्य नाप लिया, एक पैर से स्वर्ग का राज नाप लिया। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा। तब भगवान ने कहा तीसरा पग कहां रखूं। बलि ने कहा मेरे मस्तक पर रख दीजिए। जैसे ही भगवान ने उसके ऊपर पग धरा राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने बलि को पाताल का राजा बना दिया। सतयुग में दैत्यराज प्रह्ललाद के पोत्र बलि ने स्वर्ग में अधिकार कर लिया था। सभी देवता इस विपत्ति से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओ से कहा की में स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से जन्म लेकर तुम्हे स्वर्ग का राज्य दिलाऊंगा। कुछ समय पश्चात भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को भगवान विष्णु ने वामन अवतार के रूप में जन्म लिया। इधर दैत्यराज बलि ने अपने गुरु शुक्रचार्य और मुनियो के साथ दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञ का आयोजन किया। बलि के इस महायज्ञ में ब्रह्मचारी वामन जी भी गए। वे अपनी मुस्कान से सब लोगो के मन मोह लेते थे। दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने अपने तपो बल से वामन के रूप में अवतरित भगवान विष्णु को पहंचान लिया। समुन्द्र मंथन की कथा सुनाते हुए कहा कि, धरती का निर्माण करने के लिए समुद्र मंथन का होना ?रूरी था क्योकि उस वक्त धरती का छोटा सा हिस्सा जल से बाहर निकला हुआ था बाकि हर जगह पानी ही था, इतने बड़े कार्य के लिए केवल देवताओं की शक्ति काफी नहीं थी अपितु देवताओं के साथ राक्षसों की शक्ति का भी प्रयोग होना था, राक्षस इस कार्य को करने के लिए रा?ी हो जाते क्योंकि समुद्र मंथन से उन्हें अमृत मिलता जो उन्हें अमर कर देता। कथा वाचक ने बताया कि, हिरण्यकश्यप ने अपने भाई की मौत का बदला भगवान विष्णु से लेने के लिए ब्रह्मा जी की तपस्या की थी। जहां देव गुरु वृहस्पति तोता का रूप धारण कर वृक्ष पर बैठ गए। और नारायण नाम का रट लगाने लगा। आजिज हिरण्यकश्यप तपस्या छोड़ कर घर आ गया। पत्नी ने पूछा कि आप तपस्या छोड़कर क्यों चले आए तो तोता की बात बताई। पत्नी ने भी भगवान के नाम का जप किया और गर्भ ठहर गया, तब भक्त प्रहलाद के रूप में बालक का जन्म हुआ। जब प्रहलाद गुरुकुल से घर आए तो हिरण्यकश्यप ने पूछा कि क्या शिक्षा ग्रहण किए हो। प्रहलाद भगवान का गुणगान करने लगे। नृरसिंह अवतार व गाजग्रह की कथा का वर्णन किया।

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